Wednesday, November 11, 2009

जिन्दगी इसी का नाम है ..

आज मैं जल्दी उठ गई थी रात भर नीद से सो नही पाई रोज़ मर्रा की जिन्दगी से तक गई थी शायद और कुछ संतुस्ठी जनक ना कर पाने की ललक ने मनो मुझे कमजोर बना दिया हो

फ़िर मैं उठ kar युहीं बाहर खुले आकाश की और देख रही थी, अब दिल्ली में ठण्ड बदती जा रही है। सुबह क लगभग ६.३० बजे थे और हल्का सा कोहरा चाय हुआ था और थोड़ा अँधेरा सा हो रहा था ॥ सुबह सुबह चिडियों की चेचाहत मन को अक सुकून एक आनद दे रही थी मन तो मेरा भी कर रहा था की उन् चिडयों के साग मन भी सुर सुर मिलों पर रूक गई की कही मेरी आवाज़ सुन कर वो कही भाग न जाए ! फ़िर धीरे धीरे दिन निकलने लगा सूरज की हलकी हलकी लाल किरण आकाश में फैलाने लगी और सूरज बदलो के पीछे से होते हुए आँख मिचोली सा खेलता हुआ प्रतीत हो रहा था॥

सुबह सुबह के सुंदर दृश्य को देख मन बहूत खुश था आज सुबह और सोचा की कहीं घूम के आ जाती हूँ इसी बहने थोडी कसरत भी हो जायेगी॥ दिल्ली की भाग दौड़ भरी जिन्दगी में कसरत के लिए वक्त निकाल पाना बहूत्मुस्किल है ऊपर से आजकल ये फास्ट फ़ूड तो जल्दी हमें बूडा और कम्जूर बना देंगी...

युहीं चलते चलते रास्ते में अक गाये दिखी वोह अपने प्यारे से बछडे को सहला रही रही॥ आगे बड़ी तो देखा कुछ बच्चे स्कूल की बस कई इंतज़ार कर रहे थे और सुबह सुबह की ठण्ड से खुदको बचने के लिए हपने हाथो को मल मल के अपने गालो पे लगा रहे थे , उनको देख मुझे मेरे बच्चपन याद आ गया जब हम भी भरी बर्कम बसता उत सुबह सुबह स्कूल को जाया करते थे...

थोड़ा और आगि बड़ी तो एक चाय वाले की दूकान पे लोगो की बीद देखी लोगो की जो बस कई इंतज़ार करने के साथ चाय और समोसे कई आनंद ले रहे थे ... हाँ वैसे भी ठंडी के महीनो में भला कौन जल्दी उत्ता है जो अपने लिए नाश्ता बना सके और दिल्ली जैसे सेहर में जयतर लोग बहार से आए हुए है यहाँ काम करने के लिए और वोह सब बहार के खाने पे ही निर्भर है... और ऊपर से ये महंगाई मार ही डालेगी ..।

जैसे जैसे आगे बड़ी तो अक मोची दिखा जो लोगो को बुला बुला कर उनसे कह रहा था "भाई साहब पोलिश करा लो " उसकी हालत देख बहूत दुःख हुआ शायद बहूत तंगी थी उसको , उसको देख मन पसीज उठा !!

आगे एक मन्दिर दिखा वहां पर बहूत सारे लोग आए हुए थे बहूत से तो ऐसे शारीरिक रूप से असमर्थ थे और कुछ के आखो मा आँसू की धार साफ़ दिखाई दे रही थी॥ शायद सब भगवान के घर अपनी अपनी फरियाद ले कर आए थे॥ उन् सब के सामने मुझे मेरी तकलीफ और दर्द मनो कुछ भी नही लग रही थी और समाज ही नही आ रहा था की मैं भगवान् से मांगू तो क्या मांगू ?

बस भगवान् जी के आगे हाथ जोड़ कर वापस घर की तरफ़ लौट पड़ी और ख़ुद की काफ़ी हद्द तक सुकून की साँस लेते देखा की लोगो की पास इतनी तकलीफ है जिसके आगे मेरी तकलीफ तो कुछ भी नही और इसी बात को दिल में रख कर घर की और लौट गई मन में एक नई ताजगी लिए...

शायद इसी का नाम जिन्दगी है...

लेखिखा
"दिव्या"

3 comments:

  1. waah divya ji bahoot gehri baat kahi hai aapne . jaise jaise ham zindgai ke padav mea aage badte rahege waise waise yea zindgai ak nai seek deti rahegi par isse thak kar haar man lena nahi balki in muskil rasto par safar karna hi zindgai hai..

    bahoot hi acha likha hai aapne..

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  2. दिव्या, ब्लॉग का आलेख बहुत ठीक है किन्तु वर्तनी संबंधी त्रुटियां इतनी अधिक है कि कई बार पढ़ते समय न चाहते हुए भी ध्यान वहीं अटक जाता है. वैसे भाषाई दक्षता की बात नहीं है सिर्फ आप थोड़ा सा समय स्क्रिप्ट को और दिया कीजिये. अपनी इस संवेदनशीलता को बचाए रखना, पहली बार जब ब्लॉग पर आया थ तब इसने ही मुझे प्रभावित किया था.

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  3. Thank you Kishore ji,, Ji main dhyaan rakhungi... Hindi mea likhne ki aadat nahi thi , Par koshish karti rahungi.. ki aage script mea problem na ho takhi padne mea aasani ho.. thank you once again.

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