आज मैं जल्दी उठ गई थी रात भर नीद से सो नही पाई रोज़ मर्रा की जिन्दगी से तक गई थी शायद और कुछ संतुस्ठी जनक ना कर पाने की ललक ने मनो मुझे कमजोर बना दिया हो
फ़िर मैं उठ kar युहीं बाहर खुले आकाश की और देख रही थी, अब दिल्ली में ठण्ड बदती जा रही है। सुबह क लगभग ६.३० बजे थे और हल्का सा कोहरा चाय हुआ था और थोड़ा अँधेरा सा हो रहा था ॥ सुबह सुबह चिडियों की चेचाहत मन को अक सुकून एक आनद दे रही थी मन तो मेरा भी कर रहा था की उन् चिडयों के साग मन भी सुर सुर मिलों पर रूक गई की कही मेरी आवाज़ सुन कर वो कही भाग न जाए ! फ़िर धीरे धीरे दिन निकलने लगा सूरज की हलकी हलकी लाल किरण आकाश में फैलाने लगी और सूरज बदलो के पीछे से होते हुए आँख मिचोली सा खेलता हुआ प्रतीत हो रहा था॥
सुबह सुबह के सुंदर दृश्य को देख मन बहूत खुश था आज सुबह और सोचा की कहीं घूम के आ जाती हूँ इसी बहने थोडी कसरत भी हो जायेगी॥ दिल्ली की भाग दौड़ भरी जिन्दगी में कसरत के लिए वक्त निकाल पाना बहूत्मुस्किल है ऊपर से आजकल ये फास्ट फ़ूड तो जल्दी हमें बूडा और कम्जूर बना देंगी...
युहीं चलते चलते रास्ते में अक गाये दिखी वोह अपने प्यारे से बछडे को सहला रही रही॥ आगे बड़ी तो देखा कुछ बच्चे स्कूल की बस कई इंतज़ार कर रहे थे और सुबह सुबह की ठण्ड से खुदको बचने के लिए हपने हाथो को मल मल के अपने गालो पे लगा रहे थे , उनको देख मुझे मेरे बच्चपन याद आ गया जब हम भी भरी बर्कम बसता उत सुबह सुबह स्कूल को जाया करते थे...
थोड़ा और आगि बड़ी तो एक चाय वाले की दूकान पे लोगो की बीद देखी लोगो की जो बस कई इंतज़ार करने के साथ चाय और समोसे कई आनंद ले रहे थे ... हाँ वैसे भी ठंडी के महीनो में भला कौन जल्दी उत्ता है जो अपने लिए नाश्ता बना सके और दिल्ली जैसे सेहर में जयतर लोग बहार से आए हुए है यहाँ काम करने के लिए और वोह सब बहार के खाने पे ही निर्भर है... और ऊपर से ये महंगाई मार ही डालेगी ..।
जैसे जैसे आगे बड़ी तो अक मोची दिखा जो लोगो को बुला बुला कर उनसे कह रहा था "भाई साहब पोलिश करा लो " उसकी हालत देख बहूत दुःख हुआ शायद बहूत तंगी थी उसको , उसको देख मन पसीज उठा !!
आगे एक मन्दिर दिखा वहां पर बहूत सारे लोग आए हुए थे बहूत से तो ऐसे शारीरिक रूप से असमर्थ थे और कुछ के आखो मा आँसू की धार साफ़ दिखाई दे रही थी॥ शायद सब भगवान के घर अपनी अपनी फरियाद ले कर आए थे॥ उन् सब के सामने मुझे मेरी तकलीफ और दर्द मनो कुछ भी नही लग रही थी और समाज ही नही आ रहा था की मैं भगवान् से मांगू तो क्या मांगू ?
बस भगवान् जी के आगे हाथ जोड़ कर वापस घर की तरफ़ लौट पड़ी और ख़ुद की काफ़ी हद्द तक सुकून की साँस लेते देखा की लोगो की पास इतनी तकलीफ है जिसके आगे मेरी तकलीफ तो कुछ भी नही और इसी बात को दिल में रख कर घर की और लौट गई मन में एक नई ताजगी लिए...
शायद इसी का नाम जिन्दगी है...
लेखिखा
"दिव्या"
Wednesday, November 11, 2009
Tuesday, November 10, 2009
दिल्ली - हाई फाई हो गई है
आज कल दिल्ली हाई फाई हो गई है, जहाँ एक और महगाई बड़ती जा रही है वहीँ दूसरी तरफ़ कॉम्मन वेअल्थ गेम क चलते आए दिन दिल्ली में नए नए परिवर्तन होते जा रहे है,,,
आज कल दिल्ली का सफर इतना महंगा हो गया की मनो ये दिल्ली नही हो कोई विदेश हो॥ पर महगाई के साथ साथ सर्विस भी अची होनी चाहिए की नही ?? पर सर्विस के नाम पर कुछ नही....
इतने सालो में मैंने महगाई को कभी महसूस नही किया या मुझे कभी परवा नही रही थी पर जब से बसों का किराया बड़ा मनो पहली बार मुझे महगाई का असली महत्व पता चला ॥ दिल्ली सरकार ने डीटीसी के हानि के चलते बसों का किराया बढाया पर ये बात समाज नही आई की उन्होंने प्राइवेट बसों को क्यूँ अनुमति दी बसों का किराया बढाने का ?? ( शायद इसलिए की अगर सिर्फ़ डीटीसी का किराया बढेगा तो कोई उसमे सफर नही करेगा ) पर अपने नुक्सान के चलते दूसरो पर अपना बोझ डालना कहाँ तक फायेदे मंद है ?
दिल्ली में लगभग ४०% से जायदा लोग ऐसे है जो प्राइवेट कंपनियो में काम करते है और उनमे से ३०-३५ प्रतिशत ऐसे लोग है जिनकी मासिक आए केवल ४००० -५००० महिना है॥ और उनकी आदि सेलरी बस के किराये में लग जाती है वोह क्या खायेंगे क्या बचायेंगे ? क्यूँ सरकार ये नही देखती है क्या उनकी आँखों में परदा डाला है या वोह चाहती ही नही है दिल्ली में गरीब लोग भी रहे ???
मुझे याद है जहाँ आज १५ रुपये किराया लगता है वहीँ जब मैं ८ साल की थी तब १ रुपये किराया लगता था ! कितना महगाई हो गई है दिल्ली में ?
मैं बस सरकार से ये कहना चाहती हूँ अगर वोह महगाई बड़ा रही है तो लोगो की मासिक आय को ध्यान में रख कर बदाये । इस तरह महगाई बढाने से लोगो की जीविका चलाने में बहूत गहरे प्रभाव पड़ता है ... सरकार क्या बनाना चाहती है दिल्ली को ?
क्या दिल्ली जैसे शहर में एक आम इंसान रह नही सकता ??
सच में अब तो ऐसा लगता है कुछ सालो में या कुछ महीनो में दिल्ली हाई फाई हो जायेगी ....
आज कल दिल्ली का सफर इतना महंगा हो गया की मनो ये दिल्ली नही हो कोई विदेश हो॥ पर महगाई के साथ साथ सर्विस भी अची होनी चाहिए की नही ?? पर सर्विस के नाम पर कुछ नही....
इतने सालो में मैंने महगाई को कभी महसूस नही किया या मुझे कभी परवा नही रही थी पर जब से बसों का किराया बड़ा मनो पहली बार मुझे महगाई का असली महत्व पता चला ॥ दिल्ली सरकार ने डीटीसी के हानि के चलते बसों का किराया बढाया पर ये बात समाज नही आई की उन्होंने प्राइवेट बसों को क्यूँ अनुमति दी बसों का किराया बढाने का ?? ( शायद इसलिए की अगर सिर्फ़ डीटीसी का किराया बढेगा तो कोई उसमे सफर नही करेगा ) पर अपने नुक्सान के चलते दूसरो पर अपना बोझ डालना कहाँ तक फायेदे मंद है ?
दिल्ली में लगभग ४०% से जायदा लोग ऐसे है जो प्राइवेट कंपनियो में काम करते है और उनमे से ३०-३५ प्रतिशत ऐसे लोग है जिनकी मासिक आए केवल ४००० -५००० महिना है॥ और उनकी आदि सेलरी बस के किराये में लग जाती है वोह क्या खायेंगे क्या बचायेंगे ? क्यूँ सरकार ये नही देखती है क्या उनकी आँखों में परदा डाला है या वोह चाहती ही नही है दिल्ली में गरीब लोग भी रहे ???
मुझे याद है जहाँ आज १५ रुपये किराया लगता है वहीँ जब मैं ८ साल की थी तब १ रुपये किराया लगता था ! कितना महगाई हो गई है दिल्ली में ?
मैं बस सरकार से ये कहना चाहती हूँ अगर वोह महगाई बड़ा रही है तो लोगो की मासिक आय को ध्यान में रख कर बदाये । इस तरह महगाई बढाने से लोगो की जीविका चलाने में बहूत गहरे प्रभाव पड़ता है ... सरकार क्या बनाना चाहती है दिल्ली को ?
क्या दिल्ली जैसे शहर में एक आम इंसान रह नही सकता ??
सच में अब तो ऐसा लगता है कुछ सालो में या कुछ महीनो में दिल्ली हाई फाई हो जायेगी ....
Monday, November 9, 2009
मेहनत करने वालो की कभी हार नही होती !
मेहनत करने वालो की हार नही होती॥ ये वाक्या तो आप सब को बलि बांती स्मरण होगा न॥ बस इस पर कुछ लिखने की कोशिश की है...
सच कहा है किसी ने मेहनत करने वालो की कभी हार नही होती पर महेनत तभी रंग लाती है जब आपको अपने किए गए काम पर पूर्ण रूप से विश्वास हो, जी हाँ॥ महेनत क साथ अपने किए गए कार्य पर विश्वास होना भी अति आवश्यक है !!
मेरी एक अद्यापिका ने एक बार मुझे यही सीख दी थी जब मैं उनके दिए गए कार्य को याद कर रही थी , और उन्होंने आकर मुझे सराहा और कहा तुम इस बार कक्षा में अवस्य ऊथिर्ण करोगी और कहा की मेहनत करना ही काफ़ी नही है बल्कि अपनी मेहनत पे विश्वास करना भी उतना आवश्यक है क्यूंकि अगर अपने काम के प्रति विश्वास नही रखोगे तो वोह आपकी अंदर से कोकला बना देगी अआपकी उन्दरुनी सकती को कम्जूर कर देगी जिसके परिणाम सवरूप आपको हार का मुह देखना पड़ सकता है॥ हाँ विश्वास करने से तात्पर्य ये नही की तुम गमंड करो आपने काम पर, अपनी महेनत पे ।
लोग अकसर मेहनत करने के बाद भी डरते अगर मैं फेल हो गया तो ? अरे ! जब तुमने सच में मेहनत करते हो तो फ़िर डर किस बात का ? अगर फेल हो गए भी तो हमें हार नही मानना चाहिए क्यूंकि हार इंसान की चुनोतियों से लड़ने के लिए परिपक्व बनता है , जैसे एक हिरा को तराशने में मेहनत लगती है उसी प्रकार ख़ुद की तराशने में भी मेहनत लगती है ...
अब से जब भी आप मेहनत करे बस ख़ुद पर विश्वास रखे , उस ऊपर वाले ( खुदा ) पे विश्वास रखे और महेनत करते रहे॥ सफलता आपके कदम जरुर चूमेगी॥
बेस्ट ऑफ़ लख !
लेखिखा
"दिव्या "
सच कहा है किसी ने मेहनत करने वालो की कभी हार नही होती पर महेनत तभी रंग लाती है जब आपको अपने किए गए काम पर पूर्ण रूप से विश्वास हो, जी हाँ॥ महेनत क साथ अपने किए गए कार्य पर विश्वास होना भी अति आवश्यक है !!
मेरी एक अद्यापिका ने एक बार मुझे यही सीख दी थी जब मैं उनके दिए गए कार्य को याद कर रही थी , और उन्होंने आकर मुझे सराहा और कहा तुम इस बार कक्षा में अवस्य ऊथिर्ण करोगी और कहा की मेहनत करना ही काफ़ी नही है बल्कि अपनी मेहनत पे विश्वास करना भी उतना आवश्यक है क्यूंकि अगर अपने काम के प्रति विश्वास नही रखोगे तो वोह आपकी अंदर से कोकला बना देगी अआपकी उन्दरुनी सकती को कम्जूर कर देगी जिसके परिणाम सवरूप आपको हार का मुह देखना पड़ सकता है॥ हाँ विश्वास करने से तात्पर्य ये नही की तुम गमंड करो आपने काम पर, अपनी महेनत पे ।
लोग अकसर मेहनत करने के बाद भी डरते अगर मैं फेल हो गया तो ? अरे ! जब तुमने सच में मेहनत करते हो तो फ़िर डर किस बात का ? अगर फेल हो गए भी तो हमें हार नही मानना चाहिए क्यूंकि हार इंसान की चुनोतियों से लड़ने के लिए परिपक्व बनता है , जैसे एक हिरा को तराशने में मेहनत लगती है उसी प्रकार ख़ुद की तराशने में भी मेहनत लगती है ...
अब से जब भी आप मेहनत करे बस ख़ुद पर विश्वास रखे , उस ऊपर वाले ( खुदा ) पे विश्वास रखे और महेनत करते रहे॥ सफलता आपके कदम जरुर चूमेगी॥
बेस्ट ऑफ़ लख !
लेखिखा
"दिव्या "
Tuesday, October 27, 2009
पहचान !
क्या आप अपने आप को पहचानते है ? नही ? तो फ़िर क्यूँ हम दुसरो को जानने पहचानने में अपना अधिकतर वक्त जाया करते है ?
कई बार ऐसे हालत उत्पन होते है जिन्दगी में जहाँ हम अपने आप में ही उलज कर रह जाते है और सही ग़लत का फ़ैसला दूसरो पर छोड़ देते है॥ जिन्दगी हमारी और फ़ैसला किसी और का? ये कैसा हिसाब है ?
जिन्दगी में अक्सर हम भी दुसरो को समजने और उनकी जीवन की उल्जनो को सुल्जाते सुल्जाते ख़ुद अपने आप से अपरिचित हो जाते है ॥ और तो और आज कल समाज में सभी वर्ग के लोगो में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ ने सब इतने खोये है की सायद की ख़ुद को समजने या जाने का किसी का पास वक्त भी बाकी है? अब तो हालत ऐसे है की सब लोग बस यही सोचते है की जो हो रहा है होने दो यारो कौन ज्यादा दिमाग कर्च करे और बेकार के जन्जतो में पड़े... यहाँ तक की किसी को ये भी परवा नही की उनकी जिन्दगी का मुक्य उद्देश्य क्या है? और उनको किस राह में जाना और क्या सही और क्या ग़लत है॥
इस बात पर एक बात याद आ गई ...:- एक बार मेरी फ्रेंड का भांजा घर आया हुआ था और इसकी उमर लगभग २ वर्ष की थी। तो वोह अपनी मस्ती में बालकनी की और जा रहा aur सामने से मेरे भाई आ रहा था और उसको जरा सी टक्कर लग गई और उसकी दिशा बदल गई किचन की और..तो उसने किचन की और बढना शुरु कर दिया और किचन से मेरी मम्मी बहार आ रही थी और फ़िर उस्सको टक्कर लग गई और उसकी दिशा फ़िर बदल बेडरूम की और और वोह बेडरूम की और चलने लगा...
इस कहानी से मै बस यही समजने की कोशिश कर रही हूँ की आज कल सब लोगो की हालत भी उस बच्चे के सामन हो गई है॥ जो जहाँ ले चले वोह उसी और चलने लगता है...ऐसे मै समाज का भी बाला नही होता और इंसान ख़ुद की पहच्चन खोता चला जा रहा है... ऐसे मै आप सब देखते ही होंगे की कल जो संस्कार हमारे पूर्वजो ने दिए थे वोह आज न क बराबर रह गए है॥ परवर्तन अनिवार्य है पर परविर्तन का मुकोटा पहन हम सच्चाई से तो नही भाग सकते न? सारी दुनिया से ख़ुद की बुरइयो को छुपा लोगे पर क्या कभी एकांत मै ख़ुद का सामना कर पाओगे ? सिर्फ़ इसका एक ही उत्तर है नही नही और सिर्फ़ नही !
इसलिए सबसे से पहले ख़ुद को समझो ख़ुद को पहचानो की तुम कौन हो ? तुमारा मजिल क्या है ? क्या जो तुम कर रहे हो वोह सब के हित मै है ? तुमरे कर्तव्य का है ?
ऐसी ही कई सावाल है जो ख़ुद से पूछोगे तो हर एक सवाल का उत्तर अपने आप ही सामने आ जाएगा॥ जो तुम्हें तुमरे अन्तेरात्मा से मिलाएगा और तुम सही मायने मा चैन की साँस ले सकोगे...
हमारी पहच्चान ही हमारा अस्तित्व है !
लेखिखा
"दिव्या"
कई बार ऐसे हालत उत्पन होते है जिन्दगी में जहाँ हम अपने आप में ही उलज कर रह जाते है और सही ग़लत का फ़ैसला दूसरो पर छोड़ देते है॥ जिन्दगी हमारी और फ़ैसला किसी और का? ये कैसा हिसाब है ?
जिन्दगी में अक्सर हम भी दुसरो को समजने और उनकी जीवन की उल्जनो को सुल्जाते सुल्जाते ख़ुद अपने आप से अपरिचित हो जाते है ॥ और तो और आज कल समाज में सभी वर्ग के लोगो में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ ने सब इतने खोये है की सायद की ख़ुद को समजने या जाने का किसी का पास वक्त भी बाकी है? अब तो हालत ऐसे है की सब लोग बस यही सोचते है की जो हो रहा है होने दो यारो कौन ज्यादा दिमाग कर्च करे और बेकार के जन्जतो में पड़े... यहाँ तक की किसी को ये भी परवा नही की उनकी जिन्दगी का मुक्य उद्देश्य क्या है? और उनको किस राह में जाना और क्या सही और क्या ग़लत है॥
इस बात पर एक बात याद आ गई ...:- एक बार मेरी फ्रेंड का भांजा घर आया हुआ था और इसकी उमर लगभग २ वर्ष की थी। तो वोह अपनी मस्ती में बालकनी की और जा रहा aur सामने से मेरे भाई आ रहा था और उसको जरा सी टक्कर लग गई और उसकी दिशा बदल गई किचन की और..तो उसने किचन की और बढना शुरु कर दिया और किचन से मेरी मम्मी बहार आ रही थी और फ़िर उस्सको टक्कर लग गई और उसकी दिशा फ़िर बदल बेडरूम की और और वोह बेडरूम की और चलने लगा...
इस कहानी से मै बस यही समजने की कोशिश कर रही हूँ की आज कल सब लोगो की हालत भी उस बच्चे के सामन हो गई है॥ जो जहाँ ले चले वोह उसी और चलने लगता है...ऐसे मै समाज का भी बाला नही होता और इंसान ख़ुद की पहच्चन खोता चला जा रहा है... ऐसे मै आप सब देखते ही होंगे की कल जो संस्कार हमारे पूर्वजो ने दिए थे वोह आज न क बराबर रह गए है॥ परवर्तन अनिवार्य है पर परविर्तन का मुकोटा पहन हम सच्चाई से तो नही भाग सकते न? सारी दुनिया से ख़ुद की बुरइयो को छुपा लोगे पर क्या कभी एकांत मै ख़ुद का सामना कर पाओगे ? सिर्फ़ इसका एक ही उत्तर है नही नही और सिर्फ़ नही !
इसलिए सबसे से पहले ख़ुद को समझो ख़ुद को पहचानो की तुम कौन हो ? तुमारा मजिल क्या है ? क्या जो तुम कर रहे हो वोह सब के हित मै है ? तुमरे कर्तव्य का है ?
ऐसी ही कई सावाल है जो ख़ुद से पूछोगे तो हर एक सवाल का उत्तर अपने आप ही सामने आ जाएगा॥ जो तुम्हें तुमरे अन्तेरात्मा से मिलाएगा और तुम सही मायने मा चैन की साँस ले सकोगे...
हमारी पहच्चान ही हमारा अस्तित्व है !
लेखिखा
"दिव्या"
Saturday, October 10, 2009
बछडा - एक सची घटना !
कुछ दिनों पहले की बात है युहीं रास्ते से गुज़रते हुए मैंने अक बछडे को देखा जो अपनी माँ की गोद में बेठा हुआ था और उसकी माँ उसको प्यार से सहला रही थी ॥
जैसे जैसे मैं उनके करीब गई देखा वोह मासूम बछडा पुरी तरह खून से लतपत था और उसकी माँ उसको पुचकार रही थी॥ उसकी ये दशा देख कर ऐसा व्यतीत हो रहा था मनो कोई गाड़ी वाला उसको मार कर गया हो... उस व्यक्ति को इस मासूम पर दया भी नही आई होगी ॥
शायद आज की दुनिया में इंसान, इंसान की परवाह नही करता उस दुनिया इंसानों से बेजुबान जानवर के लिए दया की उम्मीद करना शायद ख़ुद की नासमाजी होगी।
उस मासूम बछडे का दर्द मनो मेरे मन में उस व्यक्ति क प्रति करोड़ उत्पन कर रहा था और वहीँ दूसरी और उस बछडे का दर्द और उसके माँ की पीड़ा मेरे मन को कम्जूर कर रही थी... बछडे की माँ अपने बच्चे को गोद में लिए उसकी आंखिर साँसे गिन रही थी और अपनी ममता भरी आँखों से अपने बच्चे के दर्द को महसूस कर उसके दर्द को कम करने की नाकाम कोशिश कर रही थी और मनो उसका मासूम बछडा अपनी माँ से बिछड़ने के गम को मन में दबाए अपनी माँ को सान्तवना दे रहा हो॥
ये ख्याल एक का एक मन में उत्पन होने हो रहे थे॥ समाज नही आ रहा था की क्या करूँ या क्या ना करूँ॥ फिर मैंने टेलीफोन डायरेक्टरी में डायल किया और उनसे एनीमल केयर वालो का नम्बर लिया और उनको फ़ोन करके बुलाया ॥ उनको आते आते लगभग आदा घंटा हो गया था और ऐसे में उस बछडे की हालत और कराब हो रही थी॥ गाये ने अपने बच्चे को और कस कर पकड़ रखा था मनो अभी वोह रो पड़ेगी ॥ उसकी आँखों से ऐसा साफ़ व्यतीत हो रहा था ॥
लगभग आदे घंटे बाद एनीमल केयर वाले आए और उस मासूम बछडे को उठा कर ले जाने लगे और उसकी माँ उनको ले जाने से रोकने की कोशिश करने लगी इस दोहरान २-३ बार उस एनीमल केयर वाले व्यक्ति को भी हाथ मा करोचे आ गई... ॥
पर उस का माँ की पीड़ा भी कम नही थी॥ ऐसे वक्त में अक माँ का साथ जरुरी होता है पर मैं उसकी ( बछडे ) की जान बचने की कोशिश में उसको उसकी माँ से दूर कर रही थी॥ शायद अभी उसकी जान बचाना जायदा जरुरी था॥
वोह उस बछडे को उठा कर ले गए और उकसी माँ उस गाड़ी की और की ताकती रही ....
उस माँ को तनहा छोड़ मैं भी घर की और निकल पड़ी ॥ मन में अक अजीब सा एह्साह लिए की क्या फ़िर वोह माँ बछडा मिल पायेगे॥ पर शायद जब मिलेंगे तो उसकी माँ के मन में होने वाली खुशी अनमोल होगी.....
लेखिखा
"दिव्या"
जैसे जैसे मैं उनके करीब गई देखा वोह मासूम बछडा पुरी तरह खून से लतपत था और उसकी माँ उसको पुचकार रही थी॥ उसकी ये दशा देख कर ऐसा व्यतीत हो रहा था मनो कोई गाड़ी वाला उसको मार कर गया हो... उस व्यक्ति को इस मासूम पर दया भी नही आई होगी ॥
शायद आज की दुनिया में इंसान, इंसान की परवाह नही करता उस दुनिया इंसानों से बेजुबान जानवर के लिए दया की उम्मीद करना शायद ख़ुद की नासमाजी होगी।
उस मासूम बछडे का दर्द मनो मेरे मन में उस व्यक्ति क प्रति करोड़ उत्पन कर रहा था और वहीँ दूसरी और उस बछडे का दर्द और उसके माँ की पीड़ा मेरे मन को कम्जूर कर रही थी... बछडे की माँ अपने बच्चे को गोद में लिए उसकी आंखिर साँसे गिन रही थी और अपनी ममता भरी आँखों से अपने बच्चे के दर्द को महसूस कर उसके दर्द को कम करने की नाकाम कोशिश कर रही थी और मनो उसका मासूम बछडा अपनी माँ से बिछड़ने के गम को मन में दबाए अपनी माँ को सान्तवना दे रहा हो॥
ये ख्याल एक का एक मन में उत्पन होने हो रहे थे॥ समाज नही आ रहा था की क्या करूँ या क्या ना करूँ॥ फिर मैंने टेलीफोन डायरेक्टरी में डायल किया और उनसे एनीमल केयर वालो का नम्बर लिया और उनको फ़ोन करके बुलाया ॥ उनको आते आते लगभग आदा घंटा हो गया था और ऐसे में उस बछडे की हालत और कराब हो रही थी॥ गाये ने अपने बच्चे को और कस कर पकड़ रखा था मनो अभी वोह रो पड़ेगी ॥ उसकी आँखों से ऐसा साफ़ व्यतीत हो रहा था ॥
लगभग आदे घंटे बाद एनीमल केयर वाले आए और उस मासूम बछडे को उठा कर ले जाने लगे और उसकी माँ उनको ले जाने से रोकने की कोशिश करने लगी इस दोहरान २-३ बार उस एनीमल केयर वाले व्यक्ति को भी हाथ मा करोचे आ गई... ॥
पर उस का माँ की पीड़ा भी कम नही थी॥ ऐसे वक्त में अक माँ का साथ जरुरी होता है पर मैं उसकी ( बछडे ) की जान बचने की कोशिश में उसको उसकी माँ से दूर कर रही थी॥ शायद अभी उसकी जान बचाना जायदा जरुरी था॥
वोह उस बछडे को उठा कर ले गए और उकसी माँ उस गाड़ी की और की ताकती रही ....
उस माँ को तनहा छोड़ मैं भी घर की और निकल पड़ी ॥ मन में अक अजीब सा एह्साह लिए की क्या फ़िर वोह माँ बछडा मिल पायेगे॥ पर शायद जब मिलेंगे तो उसकी माँ के मन में होने वाली खुशी अनमोल होगी.....
लेखिखा
"दिव्या"
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